कर्मभूमि पर मानव-मात्र को अपना मानव जीवन सार्थक बनाने के लिए आत्म चिंतन करना जरूरी है, मानव को ईश्वर से ज्यादा स्वयं को जानने की जरुरत है वो स्वयं कौन है? उसका अपना सत्यस्वरूप क्या है? उसे किसने और क्यों बनाया है, वो कर्मभूमि पर कहाँ से आया है और उसे यहाँ से कहाँ जाना है?
कहाँ से तुम आए हो, कहा तुमको जाना हे जी ?
पता नहीं कब किस जगह मर जाना है ?
अरे जिसने बनाया तुम्हें, उसको तो जाना नहीं,
धर्म कर्म की बातों को, तुमने कहाँ जाना है |
अरे इतना तो मान लेना, ये है प्रभु का कहना,
खाली हाथ आए हो जी, खाली हाथ जाना है |
अरे माटी के पुतले हो तुम तो, माटी में मिल जाना है तो,
बतलाओ जग से क्या, साथ लेकर जाना है……?
अद्भुत रहस्यमय सृष्टि सृजन के रहस्यमय ज्ञानानुसार कर्मभूमि पर अवतरित होने वाले मनुष्यरूपी जीवात्मा ने अपने नश्वर भौतिक शरीर के भीतर ईश्वरीय वैभव, आत्मा व जीवात्मा के भेद को जान लिया, वो कर्मयोगी कर्मभूमि पर मैं से मुक्त हो जाता है और उस कर्मयोगी के लिए मुक्ति के द्वार स्वतःही खुल जाते है, इसी क्रिया को मोक्ष प्राप्ति भी कहते है| ज्ञात रहे कर्मभूमि पर जीवनयापन के लिए मनुष्यरूपी जीवात्मा को कर्म करने पड़ते है व कर्मो के अनुसार दुःख-सुख भोगना पड़ता है| किन्तु मोक्ष में पवित्र आत्मा को बिना कोई कर्म किये शाश्वत सुख मिलता है| ज्ञात रहे कर्मभूमि भोग भूमि है यहाँ अच्छे-बुरे कर्मो का फल भोगना जरुरी है| अतः मोक्ष का शाश्वत सुख पाने के लिए मनुष्यरूपी जीवात्मा को कर्मभूमि पर अपना जीवात्मस्वरूप त्यागकर विराट आत्मस्वरुपता में निष्काम कर्मयोगी बनना होता है इसी क्रिया को अकर्मी बन जाना कहते है| कर्मभूमि पर जिसने स्वयं के भीतर आत्मा-जीवात्मा के भेद को जाना उसका मानव जीवन सार्थक हो गया|
देवलोक से कर्मभूमि पर आत्मकल्याण के लिए अवतरित होने वाले मनुष्यरूपी जीवात्मा के दो स्वरूप होते है, एक तो प्रकृति के पंचतत्वों से बना मानव रूपी नश्वर भौतिक शरीर और दूसरा मनुष्यरूपी सगुण जीवात्मा के भीतर निष्कलंक, निराकार निर्गुण परब्रह्म स्वरूप विराट आत्मा रूपी सूक्ष्म शरीर| ज्ञात रहे कर्मभूमि पर मनुष्यरूपी जीवात्मा को नश्वर भौतिक शरीर परिवर्तन होने से पहले सृष्टि की महामाया को पराजित कर सगुण जीवात्मस्वरूप को त्यागना होता है, तभी कर्मयोगी को कर्मभूमि पर जन्म-मरण से मुक्ति मिल सकती है|
मानव का विराट आत्मा रूपी सूक्ष्म शरीर अजर-अमर, अविनाशी होता है, जिसको मानव का सत्यस्वरूप कह सकते है, इसका कभी जन्म-मरण नहीं होता, ज्ञात रहे माता के गर्भाशय में प्रकृति के पंचतत्वों से बने भौतिक शरीर में मनुष्य के सगुण जीवात्मा रूपी सूक्ष्म शरीर का अवतरण होता है| मनुष्य का जीवात्मा रूपी सूक्ष्म शरीर देवलोक से पृथ्वीलोक पर आने के लिए अपने आत्मकल्याण के लिए प्रकृति के पंचतत्वों से बने भौतिक शरीर को धारण करता है| मनुष्य के इसी नश्वर भौतिक शरीर को मनुष्य का साकार सगुण परब्रह्म स्वरूप कह सकते है| जब तक मनुष्य की पवित्र आत्मा विदेही भाव में विराट आत्मस्वरुपता में निष्काम कर्मयोगी मतलब अकर्मी बनकर मोक्ष प्राप्त नहीं कर लेती तब तक मनुष्य रूपी सगुण जीवात्मा के सूक्ष्म शरीर का कर्मभूमि पर उसके कर्मो के अनुसार आवागन होता रहता है|
ज्ञात रहे मानव तन तीन लोक का संगम स्थल है, कर्मभूमि पर मानव को सगुण परब्रह्म का साकार स्वरूप कह सकते है, जिसके भीतर निष्कलंक, निराकार, निर्गुण परमब्रह्म आत्मस्वरूपता मे ज्ञान एवं आत्मशक्ति स्वरूप विधमान रहते है | ज्ञात रहे मानव रूपी नश्वर भौतिक शरीर की स्वामिनी प्रकृति है जिसके भीतर मनुष्यरूपी जीवात्मा के सूक्ष्म शरीर के स्वामी सगुण परब्रह्म है और सगुण मनुष्यरूपी जीवात्मा के भीतर विद्यमान निर्गुण पवित्र आत्मा के स्वामी निर्गुण परमब्रह्म है| अतः कर्मभूमि पर सम्पूर्ण सृष्टि के सभी देवी-देवता व मानव एक ही सगुण परब्रह्म के अनेक मायावी रूप है, जिन्हें हम सगुण परब्रह्म की संतान व अवतार कह सकते है, जिनके भीतर विराट आत्मस्वरूपता में निर्गुण परमब्रह्म ज्ञान व आत्मशक्ति स्वरूप विधमान है| कर्मभूमि पर जिसने आत्मा व जीवात्मा के भेद को जाना उसका मानव जीवन सार्थक हो गया|
जय अहिंसा ॐ विश्व शांति, सत्यमेव जयते|