मानव का जन्म कर्मभूमि पर मायावी सगुण स्वरूप को त्यागकर निर्गुण बनने के लिए हुआ है…

अदभुत रहस्यमय सृष्टि सृजन के रहस्यमय ज्ञानानुसार ‘एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति’ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एक परमब्रह्म ही परम सत्य है उसे विदित किये बिना मानव के लिए इस संसार से मुक्ति का और कोई उपाय नही है| अतः कर्मभूमि पर सम्पूर्ण मानव जगत के लोगों को अपना मानव जीवन सार्थक बनाने के लिए, ईश्वर व स्वयं के सत्यस्वरूप को, मानव धर्म की सत्य परिभाषा को जानना, समझना अत्यंत आवश्यक है|

सृष्टि के रहस्यमय ज्ञानानुसार ईश्वर एक है किन्तु उस एक ही ईश्वर के दो स्वरूप दो चरित्र है, निर्गुण विराट आत्मस्वरुपता में जो परम सत्य है, वही मायावी सगुण जीवात्मस्वरुपता में सत-असत है| ईश्वर का निर्गुण स्वरूप अनादि, जन्म-मरण, गुण-दोष रहित, अजर-अमर, अविनाशी है। उसके जैसा दूसरा न कोई था, न कोई है और नहीं कभी कोई होगा। ठीक इसके विपरीत ईश्वर का दूसरा स्वरूप जो ईश्वर की इच्छा शक्ति से प्रकट हुआ, वो सगुण सत-असत रूपी मायावी परिवर्तनशील नश्वर जीवात्मस्वरूप है, इसे प्रभु से प्रकट हुई महामाया भी कहते है। मनुष्यरूपी जीवात्मा को कर्मभूमि पर सृष्टि की महामाया को पराजित कर अपना आत्मकल्याण करना होता है|

कर्मभूमि पर मानव सगुण परमात्मा परब्रह्म की सर्वश्रेष्ठ कृति, सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है, इसलिए मानव को सगुण परमात्मा परब्रह्म स्वरुप माना गया है| कर्मभूमि पर मनुष्य योनि में देवी-देवता भी जन्म लेने के लिए तरसते है क्योकि जीवात्मा का आत्मकल्याण कर्मभूमि पर ही हो सकता है देवलोक से नही| मनुष्य रूपी जीवात्मा आत्मकल्याण के लिए, देवलोक से कर्मभूमि पर माता के गर्भ में प्रकृति के पंचतत्वों से बने मानव तन में अवतरित होता है। जिस मानव तन को मनुष्य रूपी जीवात्मा धारण करता है वो मानव तन मनुष्य रूपी जीवात्मा के लिए एक रथ के समान होता है|

मनुष्यरूपी जीवात्मा माता के गर्भ से कर्मभूमि पर अवतरित होता है, उस पर महामाया का पर्दा गिर जाता है| जिसके कारण मानव अपने विराट आत्मस्वरूप को भूलकर जीवनभर अपने नश्वर मायावी भौतिक शरीर के लिए कर्म करता रहता है| जिसके कारण कर्मभूमि पर मानव का अमूल्य जीवन निर्थक हो जाता है| मानव को सतलोक में शाश्वत सुख पाने के लिए, कर्मभूमि पर अपना मानव जीवन सार्थक बनाने के लिए, सत्कर्मी बनकर कर्मभूमि पर स्वर्ग सुख का आनंद लेते हुए, आत्मज्ञानी बनकर देह भाव एवं जीवात्मस्वरूप को त्यागकर मैं से मुक्त होकर, विदेही भाव में विराट आत्मस्वरुप निष्काम कर्मयोगी बनकर, अपना आत्मकल्याण करना चाहिए |

 

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