विदेही भाव में विराट आत्मस्वरूप निष्काम कर्मयोगी बनने वाले को कहते है परमात्मा स्वरूप…

जब से कर्मभूमि का सृजन होकर मानव का जन्म हुआ, तब से अब तक युगानुसार मानव ने धरती पर चाहे जितने विकास कर लिए हो, किन्तु मानव धर्म के अभाव में एक न एक दिन धरती पर पाप का बोझ बढ़ने के कारण महाविनाश होकर सब कुछ मिट्टी में मिल जाता है| हमारी कर्मभूमि को बनकर आज अरबों वर्ष बीत गये, मानव जाति का जन्म होकर भी करोड़ो वर्ष बीत गये, किन्तु मानव जगत का वर्तमान कलेंडर आज भी मात्र 2023 वर्ष की गणना कर रहा है और एक बार फिर से धरती पर पाप का बोझ बढ़ जाने के कारण महाविनाश की सम्भावनाएं दिखाई दे रही है|

कर्मभूमि पर महाविनाश मानव जगत के कर्मो के अनुसार होता है, मानव जगत के लिए सबसे बड़ी महासमस्या है इस समस्या का सबसे बड़ा कारण मानव आज तक मानव स्वयं व ईश्वर के सत्यस्वरूप को, मानव धर्म की सत्य परिभाषा को नहीं जान पाया| अद्भुत रहस्यमय सृष्टि सृजन के रहस्यमय ज्ञान के अभाव में आज तक मानव यह भी नहीं जान पाया, ईश्वर नाम की दिव्य महाशक्ति कौन है? उसका सत्यस्वरूप क्या है? मानव आज तक यह भी नही जान पाया कि वो स्वयं कौन है और उसका सत्यस्वरूप क्या है? इस कर्मभूमि पर वो कहाँ से और क्यों आया है? उसे यहाँ से कहाँ जाना है?

सम्पूर्ण मानव जगत जिस ईश्वर को मानता है वो ईश्वर कहाँ निवास करता है? इस दुनिया को किसी ने बनाया है या स्वतः ही बन गई है? मानव जगत जिस ईश्वर की कल्पना करता है वो है भी या नहीं ? जिसे कभी किसी ने देखा ही नहीं, उस दिव्य महाशक्ति के सत्यस्वरूप को किसी ने जाना नहीं, फिर भी सम्पूर्ण मानव जगत के लोग उससे डरते क्यों है? ऐसे कई सवाल है जो आज के विकास के युग में 21वी सदी में मानव को धर्म और ईश्वर के नाम पर गहरा चिंतन करने के संकेत देते है| 

आज विकास के युग में भी मानव जगत के लोग धर्म और ईश्वर के नाम पर सदियों से चली आ रही परम्परागत आमनाओं को मानने के लिए बाध्य क्यों है? क्यों कोई चाहकर भी मानव रचित किसी धर्म सम्प्रदाय की मान्यता को नहीं बदल सकता, नहीं अपनी स्वतंत्र सोच को किसी पर लागु कर सकता है क्यों ? कब तक कर्मभूमि पर धर्म के नाम पर रुढ़िवादी एवं हिंसक परम्पराएँ चलती रहेगी? इन सभी सवालों के जवाब कल्कि ज्ञान सागर में मिल सकते है|

आज के मानव को अद्भुत रहस्यमय सृष्टि सृजन के रहस्यमय ज्ञान को जानना अत्यंत आवश्यक है तभी मानव सत्कर्मी बनकर कर्मभूमि पर स्वर्ग सुख का आनंद लेते हुए विदेही भाव में विराट आत्मस्वरूपता में परमात्मा स्वरूप बनकर अपना आत्मकल्याण  कर सकता है, कर्मभूमि पर मानव-मात्र अपना मानव जीवन सार्थक बना सकता है|

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