||कल्कि ज्ञान सागर के माध्यम से ईश्वरीय संदेश||
दोस्तो आज हमारी धरती पर लाखो धार्मिक स्थल है और करोड़ो साधू-संत भी भ्रमण कर रहे है, धर्म ग्रंथो की भी कोई कमी नहीं है फिर भी धरती पर दिन प्रतिदिन धर्म के प्रति ग्लानि बड़ती जा रही है? आखिर क्यो? क्योकि कर्मभूमि पर कर्म करने का ज्ञान देने वाले अधिकतर साधू-संत कालदोष के कारण माया प्रेमी बन गये है| कथा के नाम पर भक्तो से लाखों रुपया लेकर एशो आराम की जिन्दगी जीने लगे है| हमारा देश जो कभी विश्व धर्म गुरु और एक आध्यात्मिक देश के नाम से जाना जाता था, जो देश विश्व को अहिंसा का संदेश देता था वो आध्यात्मिक देश भी माया प्रेमी बनकर कागज के चंद टुकडो के लिए प्रतिदिन लाखो पशुओ की हिंसा करवा रहा है| जो भारत कभी विश्व धर्म गुरु के नाम से विश्व विख्यात था, वो आज विश्व की सबसे बड़ी मांस की मंडी बन गया है| जो देश कभी विश्व को ज्ञान देता था आज वो मानव जगत को मांस खिलाकर मानव में तामसिक प्रवृतियां पैदा कर रहा है| भला एक हिंसक देश पुनः विश्व धर्म गुरु कैसे बन सकता है|
आज हमारे देश में प्रति दिन कई महिलाओं के साथ दुष्टाचार हो रहा है, पुरुष प्रधान दुनिया बन जाने के कारण आए दिन महिलाओं पर अत्याचार होने लगे है| इतना ही नहीं भारत जैसे एक आध्यात्मिक देश में 3 और 5 साल की मासूम बच्चियों के साथ भी आए दिन दुष्टाचार होने लगे है| आज हमारे देश में कदम-कदम पर दुष्टाचार, अत्याचार, भ्रष्टाचार, खून खराबा होने के कारण लोगो का जीना मुश्किल हो गया है| भारत की पावन भूमि दिन प्रतिदिन नरक स्वरूप बनती जा रही है, आज का मानव ज्ञान के अभाव में सत्कर्म और सेवा रूपी मानव धर्म को भूलकर दानव स्वरूप बनता जा रहा है|
दोस्तो मैं आपको बार-बार याद दिलाना चाहूँगा की देवलोक से पृथ्वीलोक और देव योनि से मनुष्य योनि सर्वश्रेष्ठ है| देवी-देवता भी पृथ्वीलोक पर मनुष्य योनि में जन्म लेने के लिए तरसते है, क्योंकि देवी-देवता सिर्फ सृष्टि में भ्रमण कर सकते है और मानव सम्पूर्ण ब्रह्मांड के विशाल वैभव को प्राप्त कर सकता है| कर्मभूमि पर मानव विदेही भाव में विराट आत्मस्वरूप निष्काम कर्मयोगी बनकर अपना आत्मकल्याण कर सकता है|
अद्भुत रहस्यमय सृष्टि सृजन के रहस्यमय खेल के अनुसार मनुष्य रूपी जीवात्मा का देवलोक से कर्मभूमि पर आत्मकल्याण के लिए प्रकृति के पंचतत्वों से बने मानव रूपी भौतिक शरीर के भीतर अवतरण होता है| माँ की कोख से मायावी संसार में जन्म लेने के बाद मनुष्य रूपी जीवात्मा अज्ञानतावश अपने भीतर के विराट आत्मस्वरूप को भूलकर सृष्टि की मोहमाया में कैद होता है|
कर्मभूमि पर मानव अद्भुत रहस्यमय सृष्टि सृजन के रहस्यमय ज्ञान के अभाव में अपने नश्वर भौतिक शरीर को ही अपना सत्यस्वरूप मानकर नश्वर शरीर के लिए कर्म करने लगता है| अपने भीतर के विशाल ईश्वरीय वैभव को भूलकर अपने आत्मस्वरूप परमब्रह्म को बाहर धार्मिक स्थलो में ढूँढता रहता है, इसी भूल के कारण मनुष्य रूपी जीवात्मा का इस कर्मभूमि पर कर्मफल भुगतने के लिए निरंतर आवागमन होता रहता है| जब तक कर्मभूमि पर मानव अपने स्वयं के सत्यस्वरूप को नहीं जान लेता, जब तक भौतिक शरीर रूपी मैं से मुक्त नही हो जाता, मानव को कर्मभूमि पर जन्म-मरण से मुक्ति नही मिल सकती| मानव को ईश्वर से ज्यादा स्वयं का चिंतन करने की जरुरत है…
कहाँ से तुम आए हो, कहाँ तुमको जाना है जी?
पता नहीं, कब किस जगह मर जाना है|
अरे जिसने बनाया तुम्हें, उसको तो जाना नहीं,
धर्म कर्म की बातों को, तुमने कहाँ जाना है|
अरे इतना तो मान लेना, यह है प्रभु का कहना,
खाली हाथ आए हो जी खाली हाथ जाना है |
अरे माटी के पुतले हो तुम तो, माटी में मिल जाना है तो,
बतलाओ जग से क्या साथ लेकर जाना है?
ज्ञात रहे कर्मभूमि पर सभी मनुष्यों का जीवन कर्म प्रधान है और मनुष्य रूपी जीवात्माओं का उनके कर्मो के अनुसार कर्मभूमि पर आवागमन होता रहता है| ज्ञात रहे कर्मभूमि पर किसी भी युग का कोई समय निर्धारित नही होता, सम्पूर्ण मानव जगत के कर्मो के अनुसार ही कर्मभूमि पर युग परिवर्तन होते रहते है| मानव जगत के कर्मो के अनुसार ही कर्मभूमि पर स्वर्ग-नरक का निर्माण होता है, स्वर्ग-नरक का मतलब मानव जगत को मिलने वाले दुःख–सुख से है| मनुष्यों को अपने-अपने कर्मो के अनुसार ही धरती पर दुःख–सुख मिलते रहते है ईश्वर मनुष्यों को सिर्फ कर्म करने का ज्ञान प्रदान करा सकता है किसी भी मनुष्य से निर्धारित कर्म नहीं करा सकता|
कर्मभूमि पर मानव जीवन कर्म प्रधान है, मानव के लिए जैसी करनी वैसी भरनी कर्मफल का अटल सिद्धांत है, अतः मनुष्य स्वयं ही स्वयं का भाग्य विधाता है ईश्वर नहीं| ज्ञात रहे मानव को ईश्वर से सिर्फ कर्म करने के ज्ञान की जरूरत है, मानव को ईश्वर से ज्यादा स्वयं को जानने की जरुरत है, धार्मिक स्थलो में जाकर देवी-देवताओ का ईश्वर का गुण गान करने से मनुष्यों को तब तक कुछ नहीं मिल सकता जब तक वो स्वयं ईश्वर द्वारा दिए गये कर्म करने के ज्ञानानुसार सत्कर्म और सेवा रूपी मानव धर्म का पालन नहीं कर लेता| मानव कर्म करने में स्वतंत्र है कर्मफल पाने में नहीं| ज्ञात रहे कर्म करने वाला मनुष्य रूपी सगुण जीवात्मा और कर्म करने का ज्ञान देने वाला निर्गुण परमब्रह्म स्वरूप आत्मा दोनों मानव के भीतर विद्यमान है| धर्म और ईश्वर दोनों का प्राकट्य मानव के भीतर हृदय में होता है, वो बाहर कही नहीं मिल सकते|
आज कालदोष के कारण अज्ञानतावश पूरी धरती पर धर्म और ईश्वर के नाम पर अनेक प्रकार के धार्मिक स्थल, धर्म ग्रंथ और धर्म गुरु बन जाने के कारण मानव जगत के लोग धर्म के नाम पर भ्रमित होकर अपने-अपने धर्म संप्रदाय को ही सत्य और सर्वश्रेष्ठ मानकर अन्य लोगो की आस्था के साथ खिलवाड़ करने लगे है और ऐसा करके वो स्वयं अपने ही ईश्वर का अपमान कर रहे है| आज के विकास के युग में भी लोग अज्ञानतावश धर्म और संप्रदाय के नाम पर आपस में लड़ रहे है खून खराबा कर रहे है सत्कर्म और सेवा रूपी मानव धर्म का चारो तरफ अभाव दिखाई देने लगा है| लोग धार्मिक होने का दिखावा करने लगे है, किन्तु हृदय से धर्मात्मा कोई बनना नहीं चाहता, इसलिए धरती पर धर्म के प्रति ग्लानि निरंतर बढने लगी है, जिसके कारण धरती नरक स्वरूप बनती जा रही है|
ज्ञात रहे सत्कर्म और सेवा से बड़ा और कोई मानव-धर्म नहीं है, मानव के सत्कर्म ही ईश्वर की सच्ची पूजा है, क्योंकि कालदोष के कारण कर्मभूमि पर सभी धार्मिक स्थल मानव जगत के बीच नफरत पैदा करने के कारण बन गये है| ज्ञात रहे सत्कर्म और सेवा रूपी मानव धर्म के लिए अनेक प्रकार के धार्मिक स्थलो एवं मानव लिखित अनेक प्रकार के धर्म ग्रंथो की जरूरत नहीं है| मानव को स्वयं के भीतर विधमान ईश्वरीय वैभव को जानने के लिए ध्यान और योग की जरूरत है| जिसने आत्मा को जाना उसने सब कुछ जान लिया|
कर्मभूमि पर युग परिवर्तन की संधिवेला संगमयुग में कलयुग को सतयुग में परिणित करने के लिए, कर्मभूमि पर सतयुगी दुनिया का सृजन करने के लिए, अपनी धरती को अजर-अमर, अविनाशी स्वर्ग बनाने के लिए, धरती पर सम्पूर्ण मानव जगत के लोगों के ह्रदय में मानवता जागृत करने के लिए, देवत्व व दिव्यता जागृत करने के लिए, मानव-मात्र को ईश्वर स्वरूप बनाने के लिए, कल्कि ज्ञान सागर सम्पूर्ण मानव जगत को ईश्वर व अवतार का सत्यस्वरूप बताकर, मानव को उसके स्वयं का सत्यस्वरूप बताकर धर्म और ईश्वर के नाम पर अनेक प्रकार के धार्मिक स्थलो, धर्म ग्रंथो और मायावी साधू-संतो एवं ईश्वर व अवतारवाद की धारणाओं से मुक्त करा देगा|
ज्ञात रहे सत्कर्म और सेवा रूपी मानव धर्म ही मनुष्यों के हृदय में वसुधैव कुटुम्बकम की भावना पैदा कर सकता है, सत्कर्म और सेवा रूपी मानव धर्म ही मनुष्यों के हृदय में प्रेम और सेवा के भाव पैदा कर सकता है, क्योंकि धर्म के ठेकेदारो ने धार्मिक स्थलो के माध्यम से धर्म और ईश्वर के नाम पर मानव जगत को बांटने का काम ही किया है| जिन्हें हम धर्म गुरु, धर्म रक्षक, साधू-संत कहते है, वही तो मानव जगत को धर्म और ईश्वर के नाम पर बांटने का काम कर रहे है| धर्म के ठेकेदारो ने ही धर्म और ईश्वर के नाम पर अनेक प्रकार के धार्मिक स्थल, धर्म ग्रंथ, जाति, पंत, संत, संप्रदाय बनाकर मानव जगत को सत्कर्म और सेवा रूपी मानव धर्म से कोसो दूर कर दिया है, जिसके कारण धर्म और ईश्वर के नाम पर मानव-मानव से नफरत करने लगे है|
ज्ञात रहे आज के कलयुग में भी हमारी धरती पर आज भी कुछ सत्यवादी संत है, जो जन-जन को सर्वधर्म समभाव का संदेश दे रहे है, इसी क्रम में सम्पूर्ण मानव जगत को धर्म और ईश्वर के नाम पर अनेक प्रकार के धार्मिक स्थल, धर्म ग्रंथ, जाति, पंत, संत, संप्रदाय से मुक्त कराने के लिए अहिंसा परमोधर्म मानव सेवा संस्थान द्वारा भारत की पावन भूमि पर वीरों की भूमि राजस्थान प्रांत में आध्यात्मिक वाग्वरांचल की धर्म नगरी बांसवाड़ा शहर में 31 दिसंबर 2016 को रात्री 12 बजे हजारो सर्वधर्म प्रेमियों के बीच धार्मिक स्थल, धर्म ग्रंथ, जाति, पंत, संत, संप्रदाय रहित सत्कर्म और सेवा रूपी कल्कि ज्ञान सागर सतयुगी विश्व अहिंसा परमोधर्म की स्थापना हो चुकी है| कल्कि ज्ञान सागर ही आने वाले समय में धरती को महाविनाशसे बचाकर अविनाशी स्वर्ग बनाएगा| एक को जानो एक को मानो, अपना मानव जीवन सार्थक बनाओ| जयअहिंसा ॐ विश्व शांति सत्यमेव जयते|