अद्भुत रहस्यमय सृष्टि सृजन के रहस्यमय ज्ञानानुसार मानव सगुण परमात्मा परब्रह्म की सर्वश्रेष्ठ कृति, सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है, जिसे हम निर्गुण ईश्वर का सगुण स्वरूप भी कह सकते है|
मानव को परमात्मा ने सृष्टि के सभी जीवो से ज्यादा सुख-सुविधाएँ प्रदान की है| मानव को भोजन के लिए अनेक प्रकार के फल, सब्जियाँ, अनाज, दालें, सूखे मेवे, पेय पदार्थ, दूध, घी, मख्खन के अलावा खाने-पिने के लिए और भी बहुत सारे खाद्य पदार्थ दिये है| जिससे मानव अनेक प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन बनाकर खाने का आनंद ले सकता है|
कर्मभूमि पर मानव ही एक ऐसा प्राणी है, जो अपने मन की बातों को शब्दों के माध्यम से दूसरों के सामने व्यक्त कर सकता है, इसके लिए परमात्मा ने मानव को बुद्धि के साथ ही शब्द ज्ञान भी प्रदान किया है| परमात्मा ने मानव को कर्मभूमि पर त्रासदियां देने के लिए, आपस में लड़-झगड़कर मरने के लिए नहीं, सत्कर्मी बनकर स्वर्ग सुख का आनंद लेते हुए, सृष्टि के जीव-मात्र से प्रेम करते हुए, कर्मभूमि पर जन्म-मरण से मुक्ति पाने के लिए मैं से मुक्त होकर विदेही भाव में विराट आत्मस्वरूप निष्काम कर्मयोगी बनकर अपना आत्मकल्याण करने के लिए जन्म दिया है|
मानव हमारी जाति है मानवता है धर्म हमारा, हम सब एक है सबका स्वामी एक, हम सभी एक ही वायुमंडल में श्वांस लेते है, एक ही प्रकृति का दिया खाते-पिते है| परमात्मा ने अपनी तरफ से मानव-मात्र के लिए समान रूप से सारी सुख-सुविधाएँ प्रदान की है, किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं किया है, कर्मभूमि पर कोई भी इन्सान सत्कर्मी बनकर सदमार्ग पर चलकर अपने मंगलमय जीवन के साथ अपना आत्मकल्याण कर सकता है|
ईश्वर मानव-मात्र के भीतर समान रूप से अपने दोनों स्वरूप में निर्गुण आत्मस्वरूप व सगुण जीवात्मस्वरुप में विद्यमान रहता है| मानव निर्गुण ईश्वर का सगुण स्वरूप है, स्वयं ही स्वयं का भाग्य विधाता है, जो अपने कर्मो द्वारा अपना भाग्य लिखता है| मानव जीवन कर्म प्रधान है, ईश्वर मानव को कर्म करने का ज्ञान दे सकता है, किसी से निर्धारित कर्म नही करवा सकता| मानव कर्म करने में स्वतंत्र है, कर्मफल पाने में नहीं| जैसी करनी वैसी भरनी कर्मफल का अटल सिद्धांत है, जो सभी पर समान रूप से लागु होता है|
जब परमात्मा ने मानव के साथ कोई भेदभाव नहीं किया, मानव के बीच कोई जाति-संप्रदाय नहीं बनाये, तो मानव क्यों आपस में भेदभाव कर अपना अमूल्य मानव जीवन मिट्टी में मिला रहा है| सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी होकर भी मानव क्यों अपने विराट आत्मस्वरूप से अंजान है, क्यों अपने नश्वर भौतिक शरीर को अपना सत्यस्वरूप मानकर, नश्वर शरीर के लिए जाति-धर्म-संप्रदाय बनाकर स्वयं को नरक जैसी त्रासदियाँ देने पर तुला है| आत्मज्ञानी बनो अपना मानव जीवन सार्थक बनाओं|