ईश्वर को जानना चाहते हो तो, स्वयं ही स्वयं के साधक बन जाओ और ईश्वर को देखना चाहते हो तो, स्वयं दर्पण के सामने खड़े हो जाओ। “एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति” सभी देवी-देवता व मानव निर्गुण ईश्वर का सगुण स्वरूप है| ईश्वर के निर्गुण व सगुण स्वरूप एक ही सिक्के के दो पहलू है। निर्गुण ब्रह्म को ईश्वर व सगुण परब्रह्म को अवतार कह सकते है। प्रकृति के पंचतत्वों से बने मानव के भौतिक शरीर के भीतर ईश्वर के दोनों स्वरूप निर्गुण आत्मस्वरूपता व सगुण जीवात्मस्वरूप में विधमान रहते है।
ईश्वर निर्गुण स्वरूप में निष्कलंक, निराकार, अजन्मा, अकर्मी है और सगुण साकार परब्रह्म स्वरूप में देवलोक के देवी-देवता व कर्मभूमि पर कर्मयोगी के रूप में मानव रूप धारण किया हुआ है। मानव तन के भीतर निर्गुण परमब्रह्म का अवतरण आत्मा के भीतर होता है, सगुण परब्रह्म का अवतरण जीवात्मा के भीतर होता है, इस प्रकार ईश्वर और अवतार का प्राकट्य साधक के भीतर होता है| निर्गुण परमब्रह्म व सगुण परब्रह्म दोनों दिव्य शक्तियां साधक के भीतर रहकर निराकार स्वरूप में कर्मभूमि पर धर्म की स्थापना व प्रभावना के कार्य करते है।
मानव जब मैं से मुक्त होकर विदेही भाव में विराट आत्मस्वरूप निष्काम कर्मयोगी बन जाता है, तो उसका कर्मभूमि पर जन्म-मरण मिट जाता है। वो सतलोक में शाश्वत सुख पाता है। पवित्र आत्मा व मनुष्य रूपी जीवात्मा के लिए मानव तन एक रथ के समान है। जब मानव का नश्वर शरीर कभी कर्ता नहीं बन सकता, नहीं भगवान बन सकता है। तो धार्मिक स्थलों में कर्मयोगी के नश्वर तन की मतलब नश्वरता की पूजा करना, कैसे सार्थक हो सकता है? आत्मज्ञानी बनों अपना मानव जीवन सार्थक बनाओं।